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कविता

खुले में आवास

कमलेश


वहाँ, उस खुले में ही तुम्हारा घर है।

खुले के हर ओर फैला महावन है
सघन लता-गुल्मों, वृक्षों, झाड़ी-झंखाड़ से
गूँजित हिंस्र पशुओं की अमुखर चीखों से
अलंघ्य राहों पर लुप्त पदचिह्नों से।

खुला अभी बचा है वन के फैलाव से
धरती पर कच्छप पीठ-सा उठा हुआ
अजानी, अदेखी, सँकरी पगडंडी है
पैतृक आवाजें वहाँ ले आती हैं।

खुले में निर्भय घूमते मृगशावक
गोधूली बेला में गौएँ रँभाती हैं
दूर आकाश में उठ रही धूम शिखा
फैल रहा शुचित मन का सुवास है।

वहाँ, उस खुले में ही तुम्हारा घर है।

 


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